लाखो अहसान व शुक्र उस रब्बे कायनात का, करोड़ो दुरूद व सलाम आकाए नामदार मदनी ताजदार सरकारे दो जहॉन मुहम्मद मुस्तफा सल्ललाहू अलैह वसल्लम पर व सद दर सद अहसान व शुकर पीराने पीर रोशन जमीर हजरत गौसे आजम दस्तगीर रजी अल्लाहू अनहो व ख्वाजाए ख्वाजगाँ ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाहे अलै व तमामी अवलिया व मशायखीन रिजवानल्लाह तआला अजमईन का जिनकी रूहानी इमदाद हर दम कदम पर शामिले हाल हैं।
इन्सान खुदा का मजहरे अतम है। इसलिए वह काबिलियत रखता है के सिफाते बशरी को फना करके खुदा में जा मिले और खुदा के सिफात हासिल करके बका के मर्तबा को पहुँचे। रसूल व पैगम्बर अलै सलाम खुदा के मजहरे खास होते हैं। हसूले मारफत के लिए इंसान को मुख्तलिफ जराए से गुजरना पड़ता है। मेरे आका व मौला पीर रोशन जमीर हजरत ख्वाजा शेख मुहम्मद अब्दुल ररूफ शाह कादरी अलचिश्ती इफ्तेखारी पीर फहमी मदजल्लू आली ने उनही रमूज से आगाही बख्श कर खिलाफते कादरिया आलिया खुलफाइया व खिलाफते चिश्तिया बहिश्तिया से सरफराज फरमाकर मसनदे रूशद व हिदायत पर फायज किया। इसी रूशद व हिदायत के जमन मे किताबे हाजा ``लो उजाले लौट आए'' है जो में अपने पीर व मुर्शिद की बारगाहे विलायत में नजर करता हूँ।
गर कबूल इफ्तेदज है इज्जो शर्फ
खाकपाए पीर फहमी ख्वाजा शेख मोहम्मद फारूक शाह कादरी अलचिश्ती इफ्तेखारी मारूफ पीर अफी अनहो।
नुक्ता: दुई अकल की इजाद है। यानी वहम व गुमान है। अकल गरमी को अलग, ठंडी को अलग देखती व जानती है। यह दोनो एक में देख नही सकती या यूँ कहो बरदाश्त नही कर सकती। जिसकी वजह से दुई का जनम होता है। हालांकि दोनों एक ही है। अगर हम दुनिया से गरमी का नामो निशान मिटा दें तो ठंडी खुद ब खुद खतम हो जाएगी। मगर अकल यह समझती है अगर गरमी को मिटा दे तो ठंडी रह जाएगी। मगर ऐसा हरगि॰ज मुमकिन नहीं। जब तक नूर नही था तब तक अँधेरा नहीं था, चीज एक ही है मगर अकल इसको दो हिस्सो मे देखती है।
अकल किसी भी ची॰ज को पूरा नही देख सकती। अकल बुरे को अलग और अच्छे को अलग कर देती है। जबके वजूद दुई से बाहर होता है। मसलन वजूद के अंदर बहनेवाली कूवत की रव एक होती है । अगर मैं कहूँ के आपके पैर की उँगली को तोड़ दिया जाए तो क्या कुछ आँख को फर्क होगा? तुम कहोगे के हरगि॰ज नही होगा क्युँकि आँख अलग है और पैर की उँगली अलग है। मगर बाहर से कुछ फर्क मेहसूस ना हो पर अंदर से आँख को बहुत फर्क होगा क्युँकि अंदर से बहने वाली कुव्वते रव एक है और बड़ी बात यह है के तमाम वजूद खुलिए से बना है।
चाहे आपकी आँख हो या आपके पैर की उँगली। इन खुलियात ने ही हस्बे जरूरत खुद ब खुद तरक्की करके उन सफात के मौसूफ बने। माँ के पेट में एक ही खुलिया होता है। वहाँ न आँख होती है न हाथ न पैर न दिगर आ॰जा मगर जैसे ही दौंरे तरक्कियात शुरू होता है तो खुलियात खुद को दोहरे बनाना शुरू कर देता है । जिसकी बदौलत तमाम आ॰जा जाहीर होने लगते है ।
जितना एहसास का माद्दा आपकी उँगली मे है उतना ही ऐहसास का माद्दा आपकी आँख मे भी मौजूद है क्यूँकि दोनो एक खुलिये से ही तो पैदा हुए है।
दुसरे लफ्जो में कहूँ तो उँगली देख सकती है जिस तरह आँख देख सकती है। जितनी गहराई से आँख देख सकती है उतनी गहराई से जिस्म का हर खुलिया ऐहसास कर सकता है।
सवाल : तसव्वुफ को बुढापे मे सीखना चाहिए।
जवाब : तसव्वुफ जीने का हुनर सिखाता है और जीने का हुनर जवानी मे चाहिए बुढापे में सीखकर क्या करेंगे।
कौल : हर लफ्॰ज दुई से पैदा होता है।
नुकता : शऊर की दो किसमे है। एक `मैं हूँ' का शऊर दूसरा `हूँ' का शऊर। जब तुम पूरी तरहसे मिट जाओगे महज एक खाली सिफर हो जाओगे तब भी शऊर बाकी रहेगा, पर मैं फना हो जाएगा। `मैं' का ऐहसास
ही आदमी को हमेशा बाहर की ओर ढकेलता है। जैसे `मैं' जा रहा हूँ, `मैं' खा रहा हूँ।
कौल : बदलाव का नाम ही वक्त हैं । बदलाहट की ते॰जी ही वक्त की रफतार है।
कौल : हक एक है पर जानने वालो ने उसे अलग अलग ढँग से जाना है।
राज : राज क्या है? नाम और अनाम के बीच मे एक होना है। इसी का नाम है राज। जो कई होते हुए भी जो एक बना रहता है। उसे ही हम राæज कहते है। राज का मतलब होता है जिसे हम जान भी लेते है और फिर भी नही जान पाते है। जिसे हम पहचान भी लेते है फिर भी वह अनजाना रह जाए। ला-इल्मी के उपर इल्म है। और इल्म के उपर राज है। जाहिल को यह गुमान है के वह नही जानता और
आलिम को यह गुमान है के वह जानता है। किसी का कौल है के जाहिल तो अँधेरे मे भटकता है पर आलिम इस्से बडे अँधेरे मे भटकते रहते है। जाहिल इसलिए भटकता है के वह नही जानता। और आलिम इसलिए भटकता है के मैं जानता हूँ जिसकी वजह से इसमे से आजæजी खतम हो जाती है और तकब्बुर मुकाम कर जाता है। राæज जानने का नाम नही बलके जान के ऊपर उठ जाना है। राज के मानी है के जो अँधेरे मे है वही उजाले मे है। पैदाइश व मौत एक है इसी को जान्ने का नाम राæज है। जो राæजदॉ है उनका कौल हैं के `मैं' को मिटाओ क्युँकि जब तक मै होगा तब तक राæज को जानने का शौक व æजौक में उतना जोश ना होगा । `मैं' के माने है मै जानता हूँ मुझे सब पता है और जैसे ही मैं को फना करेगा ॰फौरन राæज को जानने का जोश बढ़ जाएगा। एक है इल्म से पहले का राæज, एक है इल्म के बाद का राæज। एक आँख वाला राæज और एक नाबिना राæज हैं।
कौल : सोने और जागने मे सिर्फ पलक के खुलने और बंद होने का फर्क है।
कसाफत और लताफत में फर्क :-
जो शए हमे हवास के जरिए या हवास से बनाए गए आलाजात के जरिए हमे मालूम हो या जिसे हम महसूस कर सके उसे कसाफत कहेंगे और जो बगैर हवासे खमसा के जरिए मालूम हो उसे हम लताफत कहेंगे।
``जिस आदमी मे राजो की समझ आ जाती है वह लताफत का दरवाजा खोल लेता है''
अगर मैं बगैर कान के आपको सुन सकूँ या बगैर आँख के आप को देख सकूँ तो यह लताफत है।
करामात : करामात वह अमल है जिसकी वजह समझ ना आ सके क्युँके हर अमल की कोई न कोई वजह होती है। जैसे एक आदमी बीमार हो और डॉक्टर से दवा ले और ठीक हो जाए हम उसको करामत नही
कहेंगे क्युँकि यहाँ ठीक होने की साफ वजह मालूम हो रही है । मगर कोई आदमी किसी बुजुर्ग के कदमो पर सर रखे और ठीक हो जाए तो उसे हम करामत कहेंगे क्युँकि यहाँ ठीक होने की वजह मालूम नही हो
रही है । मगर इसमे भी वजह है। एक तो ऐसी है जैसे बिजली आपके जिस्म मे दाखिल होकर आपको झटका देती है या जिस्मानी नि॰जाम को कुछ देर के लिए सुन्न कर देती है ठीक इसी तरह नेक आदमी की
जिस्मानी बिजली इन्सानी बीमारी को ठीक कर देती है। जिसे आज रेकी कहते हैं। हकीकी करामत वह हैं जहाँ अमल और वजह एक हो जाए जहाँ दो की गुँजाइश ना हो।
कौल : जो ख्वाहिश से भरा है वह ही कही पहुँचना चाहता है।
कौल : नफसानियत से भरा हुआ मन जहाँ है वहाँ कभी नही होता और जहाँ नही है वहाँ सदा डोलता रहता है।
कौल : नफसानियत से भरा हुआ मन रा॰ज से वाकिफ नहीं हो पाता सिर्फ बाहर ही भटकता रहता है। कभी अंदर दाखिल नही हो पाता।
कौल : नफ्स हमेशा बदलाव पर जीता है।
कौल : सबसे बड़ी ख्वाहिश कोई ख्वाहिश ना होना।